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25 दिसंबर को मनुस्मृति जलाने के विरोध में हिन्दू दलितों ने कराया “मनुस्मृति सर्वश्रेष्ठ है” ट्रेंड

दरअसल बीते दिन मनुस्मृति को लेकर दो धड़े सोशल मीडिया पर भिड़ पड़े। एक पक्ष मनुस्मृति को जला रहा था तो दूसरा सर्वश्रेष्ठ बताने पर अड़ा था। जिसके बाद दोनों खेमो ने दिन भर इसको लेकर ट्विटर पर ट्रेंड की बरसात कर डाली।

दहन या सर्वश्रेष्ठ तक के सफर से गुजरने के लिए हमें जानना पड़ेगा कि आखिर मनुस्मृति है क्या? दरअसल मनुस्मृति हिंदू धर्म का एक प्राचीन धर्म शास्त्र है। इसे मानव – धर्म – शास्त्र मनुसंहिता आदि नामों से भी जाना जाता है यह स्मृति स्वयंभू मनु द्वारा रचित है।

25 दिसंबर 1927 को डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने इस धर्मशास्त्र को यह कहकर जलाया था कि यह कथित रूप से छुआछूत और भेदभाव को बढ़ावा देती है। उसी चलन को आगे बढ़ाते हुए एक विशेष वर्ग के लोगों ने इस वर्ष भी मनुस्मृति की प्रतियां जलाई और 25 दिसंबर को मनुस्मृति दहन दिवस के रुप में मनाया।

जिसके बाद शाम होने तक कुछ हिंदू और दलित हिंदू समर्थकों ने यह कहते हुए की मनुस्मृति किसी भी प्रकार की छुआछूत को बढ़ावा नहीं देती है ट्विटर पर ” मनुस्मृति सर्वश्रेष्ठ है ” ट्रेंड चला दिया।

एक अन्य ट्विटर यूजर ने लिखा की मनुस्मृति में लिखा गया है,

“ब्राह्मण शूद्र बन सकता है और शूद्र ब्राह्मण बन सकता है इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य भी अपना धर्म बदल सकते हैं…
मनुस्मृति के अनेक श्लोक कहते हैं कि उच्च वर्ण का व्यक्ति भी सर्वश्रेष्ठ कर्म नहीं करता तो (शूद्र) अशिक्षित बन जाता है तो मनुस्मृति शूद्र विरोधी कैसे हुई ?”

इस विषय में जब हमने संस्कृत के विद्वान और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से रिसर्च कर रहे छात्र आलोक शास्त्री से बात की तो उन्होंने बताया कि “ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र वर्ण की सैद्धांतिक अवधारणा गुणों के आधार पर है, जन्म के आधार पर नहीं | वर्तमान जन्मना जातिव्यवस्था हमारे दिग्भ्रमित पुरखों की देन है। मनुस्मृति की रचना जिस समय मे हुई उस समय जन्मना जाति व्यवस्था के विचार का भी कोई अस्तित्व नहीं था | अत: मनुस्मृति जन्मना समाज व्यवस्था का कहीं भी समर्थन नहीं करती | महर्षि मनु ने मनुष्य के गुण- कर्म – स्वभाव पर आधारित समाज व्यवस्था की रचना कर के वेदों में अपौरुषेय परब्रह्म द्वारा दिए गए आदेश का ही पालन किया है।”

महर्षि मनु महाराज

आगे आलोक जी बताते है “मनुस्मृति में विभाजन का आधार केवल गुणकर्म था इस बात का जिक्र मनुस्मृति में अनेक स्थानों पर है। मनुस्मृति में जातिव्यवस्था का नही अपितु वर्णव्यवस्था का जिक्र है और वर्णव्यवस्था का आधार केवल कर्म है। मनुस्मृति में वर्ण व्यवस्था को ही बताया गया है और जाति व्यवस्था को नहीं इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि मनुस्मृति के प्रथम अध्याय में कहीं भी जाति या गोत्र शब्द ही नहीं है  बल्कि वहां चार वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन है | यदि जाति या गोत्र का इतना ही महत्त्व होता तो मनु इसका उल्लेख अवश्य करते कि कौनसी जाति ब्राह्मणों से संबंधित है, कौनसी क्षत्रियों से, कौनसी वैश्यों और शूद्रों से |”

यह वर्ण शब्द “वृञ” धातु से बनता है जिसका मतलब है चयन या चुनना और सामान्यत: प्रयुक्त शब्द वरण भी यही अर्थ रखता है | जैसे वर अर्थात् कन्या द्वारा चुना गया पति, जिससे पता चलता है कि वैदिक व्यवस्था कन्या को अपना पति चुनने का पूर्ण अधिकार देती है। यह वैदिक संस्कृति को स्त्रीविरोधी कहने वालों के मुंह पर एक तमाचा है।

वैसे भी यह बात सिर्फ़ कहने के लिए ही नहीं है कि वर्णव्यवस्था जन्मना नही गुणकर्मणा थी,अपितु प्राचीन समय में कई बार वर्णपरिवर्तन कर्म के आधार पर हुआ है जैसे – महान वेदज्ञ ऐतरेय ऋषि दास(कर्मणा शुद्र) के पुत्र थे। परन्तु गुणों के आधार पर उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की | ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है |

इसी प्रकार प्रसिद्ध विश्वामित्र जी ने भी अपने तप और ज्ञान के आधार पर क्षत्रियत्व से ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया ऐसे अनेक उदाहरण आपको अन्यत्र स्थानों पर मिलेंगे।

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