‘हम भारत के लोग’, सवर्ण उस ‘हम’ में नहीं ! क्या उनपे संविधान थोपा गया है?

किसी भी व्यक्ति का किसी प्रतिस्पर्धा में मुकाबला करना उसकी आर्थिक स्थिति से निर्धारित होता है। प्रतिस्पर्धा के लिए जो साधन चाहिए होते हैं, आर्थिक स्थिति उसको उपलब्ध कराती है। अगर इसको सामाजिक स्तर पे ले जाएँ तब इतिहासिक कारण व सामाजिक बनावट को इसके आगे लाकर खड़ा कर दिया जाता है।

यह कहना गलत होगा की समाज के विकास में, समाज की मनोदृष्टि का कोई महत्व नहीं है। यह एक प्रकार से समाज के साथ छलावा है। जिसके लिए कई कारण जिम्मेदार हैं, जिसमें समाज खुद तथा सामाजिक परिवेश जिसमें राजनीती भी सम्मलित है। यहां समाज कुछ भी हो सकता है, जैसे जाति समूह, धार्मिक समूह, राज्य, या देश। व्यक्ति के अलावा, समूह का भी एक सम्पूर्ण दृष्टि जिसे अंग्रेजी में ऐटिटूड भी कहते हैं, होता है। अगर हम समाज का मूल्याङ्कन करें, तो यह स्पष्ट रूप से दिखता है, जैसे भारत में जैन समाज, तथा दुनिया में यहूदी समाज। यह काबिलियत हर समाज में है बस सही दिशा तथा उत्साहवर्धन की जरूरत है।

भारत में हर समस्या की जड़ कुछ तथा कथित बुद्धिजीवियों की मानें तो ब्राह्मण है। यह नफरत का भाव उन्हें जाति हिंसा की ओर भी झोंक रही है। यह तब है, जब आज कोई भी उन्हें गाली दे देता है, और मुख्यतः सवर्ण क़ानूनी रूप से अछूत ही होते है। इतिहास कुछ भी हो आपको यह बात भी याद रखनी चाहिए कि अन्याय हमेसा एक तरफा हो जरूरी नहीं है। इसका सबसे सटीक उदहारण साउथ अफ्रीका है , जहाँ अब स्वेत को भी रेसियल हिंसा का शिकार होना पड़ रहा है। यह एक प्रकार से वर्तमान पीढ़ी (इसमें सारे सवर्ण हैं ) को ग्लानि के भाव से बांधना जैसा है, जब वे इसके लिए किसी प्रकार से जिम्मेदार नहीं हैं और वर्तमान पीढ़ी को जिसमें कई गरीब भी कई सरकारी मदद से वंचित रह जाते हैं, जबकि दूसरे समाज में अमीर भी सरकारी योजना का लाभ ले लेते हैं।

मैं एक चीज़ इधर, और जोड़ना चाहूंगा, कई समाज हमारे बीच है, जिसके पिछड़ेपन के लिए इतिहासिक कारणों को जिम्मेदार नहीं कहा जा सकता ,समाज से या इतिहासिक कारण बहुत कम हद तक जिम्मेदार हैं। जैसे आदि वासी समाज , इनका पिछड़ापन बस एक संयोग है, जिसमें भौगौलिक कारण भी हैं । जैसे औद्योगिक क्रांति इंग्लैंड में आना। हज़ारों साल से वह अपने समूह में रहते हैं। आज़ादी के बाद भी, उनका क्षेत्र राजनितिक रूप से आरक्षित है, अधिकांश जगह उनके ऊपर उन्ही समाज का प्रतिनिध्तव है। दरअसल यह अवधारणा फैलाई जा रही है की उनके पिछड़ेपन का कारण हिन्दू जाति व्यवस्था है , जिसको कुछ लोग, जाति रंग से दिखाने के लिए ब्राह्मणवाद भी कहते हैं।

अब हम आरक्षण पर आते हैं, यदि आरक्षण प्रतिनिधित्व के लिए है ना की नौकरी पाने का जरिया तब हमें प्रतिनिधित्व को परिभाषित करना पड़ेगा, आखिर हम कहना क्या चाहते हैं। लेकिन वर्तमान में यह नौकरी पाने का जरिया ज्यादा लगता है।

कुछ सवाल जिसका उत्तर हम ढूंढेंगे। क्या प्रतिनिधितव ग्रुप डी में जरूरी है , क्या डॉक्टर के लिए भी ? क्या प्रतिनिधितव जनसँख्या के आधार पर मांगना, बढ़ती जनसँख्या के साथ बढ़ाना सही है ? इसका कोई पुनर्मूल्यांकन ना करना – कौन लाभ ले लिया ?

कोई आरक्षण नहीं छोड़ना चाहता , कुछ अग्रणी जातियां , जोकि ओबीसी , अनुसूचित जाति , जनजाति सबमें हैं , अधिकतम लाभ ले जातें हैं, उनमें भी जो लोग सम्पन हैं वे पीढ़ी दर पीढ़ी लाभ ले रहें हैं। यह लोग ओबीसी , अनुसूचित जाति, जनजाति के न्याय की बात करते हैं पर उनके लिए आरक्षण का लाभ भी नहीं छोड़ना चाहते। यह सब चींजें स्पष्ट करती हैं की ऐसी कोई भी ग्रुपिंग या समूहीकरण एक हित साधने का जरिया भर है। कोई जाति किसी का प्रतिनिधित्त्व नहीं करती। यह बात जातिगत आधार पर पार्टियों का होना भी सिद्ध करता है। यह बात मैंने इसलिए कही क्यों की यह आरक्षण व्यवस्था का दुरपयोग हो रहा है , और धीरे धीरे ही सही भारतीय लोकतंत्र को जातितंत्र में बदल रहा है।

आरक्षण का जनसँख्या के अनुपात में बढ़ाना एक गंभीर सवाल खड़ा करता है। छत्तीसगढ़ सरकार ने इसे किया था। लोग हमेसा कहते हैं हम इतने प्रतिशत हैं पर हमारे पास इतना ही साधन हैं, हालाँकि इसमें कभी भी जनसँख्या वृद्धि दर को कारण के रूप में नहीं देखा जाता है। मैं भली भाँती जानता हूँ की गरीबी भी जनसँख्या वृद्धि दर का एक कारण है। मैं यहाँ एक विचार रख रहा हूँ।

यह एक प्रकार से अनारक्षित वर्ग के पैरों में ज़ंजीर बांधना है, वह अपना विकास कभी भी जनसख्या अनुपात से ज्यादा नहीं कर पाएगी, क्यूंकि हर चीज़ उनके जनसँख्या के अनुपात से बाँध दी जायेगी। यह अभी उतना सही नहीं है, पर भविष्य में इसकी संभावना प्रबल है। उनका काम ऐसी व्यवस्था में केवल टैक्स भरना तक ही सिमित है, शायद कुछ ज्यादा जब तक अधिक संपन्न हैं। एक समाजवादी व्यवस्था में बढ़ती जनसंख्या का आर्थिक भार कुछ हद तक, जिसकी जनसख्या कम बढ़ती है उसको उठाना पड़ता है। यह उनके लिए और समस्या तब खड़ी करता है जब सरकार भी, उन्हें अधिकतर सुविधाओं से वंचित रखती हैं , जो अन्य समाज के गरीब को मिलता है। मुझे तो आजतक यही समझ नहीं आया कि सरकार आखिर अनारक्षित वर्ग के गरीब छात्रों के साथ भेदभाव करती क्यों है, क्या उनका न पढ़ा लिखा या रोजगार से वंचित रह जाना सरकार के दृष्टि में सही है? साधन को बहाना बना कर , किसी के साथ भेदभाव उचित नहीं है, जब दूसरे वर्ग में संपन्न भी मलाई खाये। सरकार अगर उन गरीबों को उनके समाज के भरोसे छोड़ती है तो यह और भी अन्याय है। सब इस देश के बराबर के नागरिक है, यह बात तो कागजी रह जायेगी, सरकार तब खुद हर चीज़ जाति पे देखेगी तो समाज तो देखेगा ही , और मानवी पहलु है, जब उन्हें उसमें लाभ दिखेगा तो क्यों छोड़ेंगे।

जैसा मैंने आरम्भ में कहा, समाज के विकास के लिए सामूहिक दृष्टिकोण का भी महत्व है। यह कारण कभी गिना ही नहीं जाएगा। भारतीय आरक्षण व्यवस्था कितनी सही है कितनी गलत इसका आप अंदाज़ा इसी से लगा सकते हैं की , मराठा भी डाटा के आधार पर पिछड़ गए और उन्हें आरक्षण दिया गया – इसका कारण क्या ? क्या देश की आज़ादी के बाद उनके साथ अन्याय हुआ ? आखिर जब आज़ादी के समय उन्हें जरूरत नहीं थी तो अब कैसे ? आखिर वे कहाँ पिछड़ गए। क्या उनके सामजिक दृष्टिकोण में कमी थी ? सचाई आरक्षण के देने के तरीके में हैं , जहां लोग आरक्षण लिए जा रहें हैं और छोड़ने का नाम ना ले, अधिक की मांग करते है, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में भी ले रही हैं और उनका भी एक समाज बन गया है,जो सम्पन है और संख्या बल में भी काफी है। जैसा की जस्टिस काटजू ने हाल में कहा है, ओबीसी समाज उतना पिछड़ा नहीं है, और बाकी अनुसूचित जाति तथा जनजाति में तेजी से एक संपन्न वर्ग बन रहा है। अनुसूचित जाति तथा जनजाति में आरक्षण जनसँख्या के आधार पर दिया गया, तब भी वह सामान्य सीट पे प्रतिष्पर्धा कर सकते हैं। और अन्य पिछड़ा वर्ग को जनसँख्या अनुपात में तो नहीं मिला पर यह भी नहीं भूलना चाहिए की वह उतने गरीब भी नहीं हैं, उनके बीच में भी अमीर वर्ग, तथा भारत में कई जगह उनकी स्तिथि काफी अच्छी है।

आरक्षण एक बार से ज्यादा लेना, एक प्रकार से प्रतिनिधितव के नाम पर अपनी कमियों पर पर्दा डालने जैसा हैं। क्या जो समृद्ध हैं, एक बार आरक्षण का लाभ ले चुके हैं अगर मेरिट के आधार पर चयन होगा तो अपने समाज का प्रतिनिधितव नहीं करेंगे , जैसा की वर्तमान में कई आरक्षित वर्ग के लोग सामान्य सीट पे चयन ले के करते हैं। तो उन्हें दुबारा आरक्षण क्यों? क्यों जो लोग आरक्षण का लाभ ले लियें हैं उन्हें ना निकाला जाए और ज्यादा से ज्यादा सीट सामान्य की जाए। अगर कोई सामाज बहुत कमजोर है तब उनमें दूसरी पीढ़ी को लाभ दिया जा सकता है , पर कोशिश होनी चाहिए के लाभ पहले जिनको नहीं मिला है उन्हें मिले।

सरकार को चाहिए की जो एक बार आरक्षण को लाभ ले चूका है उन्हें निकालें । कुछ लोग तब कमजोर प्रतिनिधितव की बात करते हैं, ऐसे में सरकार चाहे तो मान लीजिये २०० में अनारक्षित वर्ग की कट ऑफ १६० है तब वे १५० से ऊपर अन्य पिछड़ा वर्ग में उन्हीं को लाभ दें जिनको लाभ नहीं मिला है , अगर उनको इस श्रेणी में कोटा के अनुपात प्रतिभागी ना मिलें, तब जो लाभ ले लियें हैं उन्हें शामिल किया जा सकता है। समय के साथ सीटों को ज्यादा सामान्य करना चाहिए। अन्यथा ये पूरी व्यवस्था को जाति आधारित करने जैसा है। सरकार आंकड़ा जुटाए , कितना लोग लाभ पीढ़ी दर पीढ़ी ले रहें हैं, इसका सबसे अच्छा तरीका जो लोग लाभ ले लियें हैं उन्हें हमेशा के लिए जनरल-ओबीसी का सर्टिफिकेट दिया जाए। ऐसा ना हो जो आज क्रीमी लेयर में है कल फिर नॉन क्रीमी लेयर में हो जाए, लाभ ले और ये मकड़ी जाल यु ही बुनता चला जाये। वर्तमान में इतनी सुविधायें हो गयी है कि सरकार चाहे तो उचित शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधा कर सबको प्रतिभा के आधार भाग लेने को प्रोत्साहित करे। आर्थिक आधार पर आरक्षण को भी मैं सही नहीं मानता, ये भी एक राजनितिक तरीका है, यह एक प्रकार से उस पीढ़ी को सजा समान है जिसकी पूर्व पीढ़ी ने अच्छा किया हो , जब अच्छा किया होगा तो समाज में योगदान भी ज्यादा रहा होगा।

कई एग्जाम में , विशेष रूप से, जहाँ सीटें कम होती हैं , जो सुपर स्पेशलिटी कोर्स होतें हैं। वहां आरक्षण अनारक्षित वर्ग के लिए काफी दिक्कते पैदा करता है। उदहारण के लिए पीजी मेडिकल में, इसमें हर वर्ग के पर्याप्त प्रतिभागी होते हैं, लगभग एक आय वर्ग के , और पीछे दी गयी आरक्षण व्यवस्था एक सामान्य धरातल सबको देती है , ऐसे में आरक्षण अनुचित है।

जातिगत नीति, सामन्य वर्ग में घुटन पैदा कर रही है , यह उन्हें दूसरे दर्ज़े के नागरिक के रूप में धकेल रही है। यह सब तब तक ठीक था अगर सरकार लाभ के साथ आरक्षित कोटा कम करते जाती। पर ये होता दिख नहीं रहा है, जब सरकारें ही हर चीज़ में जाति देखेंगी तो इसको और बढ़ावा मिलता है। ये अच्छी बात है की जाति व्यवस्था टूटे , लेकिन लोग चाहें जाति में रहें, या धर्म में सरकार का काम सबको सामन्य नागरिक के रूप में देखना है ना की जाति-व्यक्ति के रूप में। अगर यही करना है तब सरकार क्यों नहीं जाति बोर्ड बना देती सब अपना अपना कर लें।
जब भी आरक्षण पे सवाल होता है , कुछ लोग इसे संविधान के विरोध के रूप में दिखाते हैं। यह अनुचित है , संविधान ‘हम भारत के लोग’ अपने आप को देते है। क्या सामान्य वर्ग उस ‘हम’ में नहीं आता ? क्या उनपे संविधान थोपा गया है ? नहीं, अगर किसी व्यवस्था को सुधारने , या न्याय की मांग की जाए तो उसे उसी रूप में देखना चाहिए।

मैं उम्मीद करता हूँ, मेरे सुझाव को सार्थक रूप से सब देखें, यह किसी के खिलाफ ना होके, व्यवस्था के खिलाफ है।


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  1. “जैसा की जस्टिस काटजू ने हाल में कहा है, ओबीसी समाज उतना पिछड़ा नहीं है” — जस्टिस काटजू ने कुर्मि और उत्तर भारतीय यादवो को पूरे ओबीसी का प्रतिनिधि मानते हुए यह कहा था कि ओबीसी *पिछड़े* नही है । यह तो अजीबो-गरीब तर्क है क्योंकि ओबीसी में सैकड़ो जातियां है और कम भूमि वाली अत्यंत गरीब जातियां भी है जिनके लिए बहुत से राज्यों(जैसे कि बिहार) से अलग से कोटा है । भगवान जाने काटजू उन्हें क्यों भूल जाते हैं !!

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