भगवदगीता में भगवान कृष्ण बताते हैं: अगला जन्म हम कहाँ लेगें और कैसे लेगें !

भगवान ये कैसे निश्चय करते हैं कि अगला जन्म हम कहाँ लेगें और कैसे लेगें, बहुत ही महत्वपूर्ण और गंभीर विषय है। बहुत से लोग तो ये भी कहते हैं कि क्या अगला जन्म ये वो, और एक उदाहरण भी कई ज्ञानी किस्म के लोग देते हैं कि जिस प्रकार हम गेहूँ की बोबनी करते हैं तो गेहूँ ही होता है तो इसी प्रकार मनुष्य, मनुष्य ही पक्षी, पक्षी ही रहेगा और पशु, पशु ही रहेगा। इसके बारे में ज्यादा चिंतन करने की आवश्यकता नहीं है और इस पर आज भी लोग कहते है कि अरे ऐसा कुछ नहीं होता हैं। बस खाओ पीयो और मस्त रहो और कहते हैं कि हमें क्या पत कि क्या सही है क्या गलत हैं। देखिये जिस प्रकार आग में हाथ डालेंगे तो आग तो हाथ जलायेगी ही, हम ये नहीं कह सकते कि हमें पता नहीं था आग से हाथ जल जायेगा गीता के अनुसार जानते हैं कि किस प्रकार हम किस जगह और किस योनि में जन्म लेते हैं।

जरुरी तथ्यों के बारे में:

भगवत गीता में श्री कृष्ण जी बताया है कुछ सिस्टम्स होते हैं, जैसे किसी व्यक्ति की म्रुत्यु होती है तो वह म्रत शरीर पहले से ही तैयार हो जाता हैं कि उसे किस योनि में जाना है जैसे कि कोई कामी व्यक्ति हैं। या कामवासना उसमें बहुत है तो ऐसा व्यक्ति तीन योनियो में जाता हैं जैसे कुत्ता, बंदर या फिर कबूतर इनमें कामवासना बहुत तीव्र होती हैं और ऐसा व्यक्ति जिसको बहुत गुस्सा आता है या बहुत क्रोधी हैं। तो ऐसा व्यक्ति सर्प योनि में जाता हैं और ऐसा व्यक्ति जो कहता जो किसी के सामने कहता कुछ अच्छा हैं और करता कुछ गलत है। तो ऐसे व्यक्ति सर्प में एक योनि होती है दोमुहा उसमें प्रवेश करते हैं क्योंकि वह दो मुंह से काम कर रहा है।

भगवत गीता जीवन का आधार है गीता के अनुसार अध्याय 8 के 6 वें श्लोक में श्री कृष्ण जी ने बताया है कि
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्‌ ।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ৷৷8.6৷৷

इसका अर्थ है कि: हे कुन्ती पुत्र अर्जुन! यह मनुष्य अंतकाल में जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करता है, उस-उसको ही प्राप्त होता है। क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहा है और अध्याय 2 के 27 वें श्लोक में श्री कृष्ण जी बताते हैं कि:

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।2.27।।

अर्थात जन्म लेने वाले की मृत्यु निश्चित है और मरने वाले का जन्म निश्चित है इसलिए जो अटल है। उसके विषय में तुम को शोक नहीं करना चाहिये ज्यादा चिंतन नही करना चाहिए और अपने द्वारा किये गए कर्म पर विश्वास होना चाहिए व्यक्ति जो भी सोचेगा जो भी करेगा उसके अनुरूप ही उसे फल प्राप्त होगा।

अध्याय 2 के 13 वें श्लोक में कहते हैं कि:

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्ति र्धीरस्तत्र न मुह्यति॥

इसका अर्थ है कि जैसे इस शरीर में जीवात्मा को कुमार, युवा और वृद्धावस्था प्राप्त होती है।वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति भी होती है, इस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता(शोक नहीं करता) न ही इसके बारे में ज्यादा चिंतन करता है उसे पता होता है कि जीवन मिला है तो म्रत्यु भी अटल सत्य है। और उसे अपने ईश्वर के प्रति सम्मुख होकर ही किसी दूसरे शरीर को पाना है आइये एक भौतिक उदाहरण लेकर समझते हैं किस प्रकार म्रत शरीर पहले से ही दूसरी योनि में जाने को तैयार रहता है। जिस प्रकार कोई व्यक्ति किसी किराये के घर में रहता हैं और उसे वह घर छोड़ना हैं तो वह उसे छोड़ने से पहले किसी दूसरे घर की तलाश कर लेता हैं। उसी प्रकार व्यक्ति का शरीर, म्रत होने से पहले ही किस योनि में जायेगा यह निश्चित होता है।

ये जो हमारा शरीर रहता है उसमें तीन शरीर होतें हैं:

१) स्थूल शरीर – यह प्रथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश से बना होता है
२) सूक्ष्म शरीर – यह मन, बुद्धि, अंहकार से बना होता है जिसमें हम जीवन में में घटित सभी घटनाओं को मन में अंकित कर लेते हैं
३) एक होता सचित आंनद से बना हुआ जो कि आत्मा हैं।

गीता का सार है कि जो भी चिंतन हम मन, बुद्धि, अंहकार से अपने पूरे जीवन में करते हैं उसके अनुसार ही हम योनि प्राप्त होती हैं भगवत गीता में कहा गया है कि:

अन्तकाले, च, माम्, एव, स्मरन्, मुक्त्वा, कलेवरम्,
यः, प्रयाति, सः, मद्भावम्, याति, न, अस्ति, अत्र, संशयः।।8.5।।

इसका अर्थ है कि जो अन्तकाल में भी मुझको ही सुमरण करता हुआ शरीरको त्यागकर जाता है। वह शास्त्रनुकूल भक्ति ब्रह्म तक की साधना के भाव को अर्थात् स्वभाव को प्राप्त होता है इसमें कुछ भी संश्य नहीं है। कि जो आप सोचेंगे या करेंगे उसके फलस्वरूप ही आपको योनि प्राप्त होगी भगवत गीता में श्री कृष्ण कहते हैं कि हे मनुष्य तू पूरा जीवन ये तेरा, ये मेरा करता रहता है। लेकिन अंत में, मैं ही तुझे याद आऊंगा जो जिदंगी भर आत्म मन से मुझे याद करते हैं उनके लिए मैं बहुत ही सरल हूँ।

श्री कृष्ण जी कहते हैं कि मुझमें (चित्त) मन लगाने वाले प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार समुद्र से उद्धार करता हूँ। और जो भी मनुष्य जीवन भर सच्चे मन और आत्मचिंतन से मेरा ध्यान करता है मैं स्वयं उसका कल्याण करता हूँ अर्थात सारे संसार में जीव जन्तु में, पशु पक्षियों में, मनुष्य ही इतनी तीव्र बुद्धि का होता है जो हमेशा चित से चिंतन कर सकता हैं और अपने को एक अच्छी योनि प्राप्त करता हैं।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे

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