सहारनपुर: अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के कब्जे को लेकर देेेश में भी कई संगठन समर्थन कर चुके हैं वहीं अब जमीयत उलेमा-ए-हिन्द ने भी तालिबान का समर्थन किया है।
उत्तर प्रदेश के सहारनपुर के देवबंद में स्थित दारुल उलूम के प्रिंसिपल और जमीयत उलेमा-ए-हिंद के अध्यक्ष अरशद मदनी ने दैनिक भास्कर को दिए इंटरव्यू में कहा कि तालिबान की विचारधारा तो यह है कि वे गुलामी को कुबूल नहीं करते। हमारे पूर्वजों की विचारधारा भी यही थी। दारुल उलूम बना ही गुलामी की मुखालफत के लिए है। इसी विचारधारा पर चलते हुए इन्होंने (तालिबान) रूस और अमेरिका की गुलामी की जंजीरों को तोड़ा। बाकी हमारा उनसे कोई ताल्लुक नहीं है।
शरिया कानून को लेकर मदनी ने कहा कि कौन कहता है कि सिर्फ शरिया ही कहता है कि लड़के और लड़कियां साथ नहीं पढ़ सकते। हिंदुस्तान के अंदर कितनी यूनिवर्सिटी और कॉलेज हैं जो कोएड नहीं हैं। लड़कियों के अलग और लड़कों के लिए अलग कॉलेज हैं। तो क्या इन कॉलेजों की बुनियाद तालिबान ने रखी थी? क्या इन्हें स्थापित करने वाले सब तालिबान के बाप हैं?
उन्होंने आगे कहा कि हम किसी को दहशतगर्द नहीं मानते। तालिबानी भी दहशतगर्द नहीं हैं। अगर तालिबान गुलामी की जंजीरों को तोड़कर आजाद हो रहे हैं और तो इसे दहशतगर्दी नहीं कहेंगे। आजादी सबका हक है। अगर वह गुलामी की जंजीर तोड़ते हैं तो हम ताली बजाते हैं। अगर यह दहशतगर्दी है तो फिर नेहरु और गांधी भी दहशतगर्द थे। शेखुद्दीन भी दहशतगर्द थे।
उन्होंने अंत में कहा “वे सारे लोग जिन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लड़ाई लड़ी वे सारे दहशतगर्द हैं। दूसरी बात फतवे को लेकर लोगों की समझ नहीं है। फतवे का मतलब सिर्फ और सिर्फ इतना है कि कोई हमसे जब पूछता है कि इस हरकत या मसले पर इस्लाम का हुक्म क्या है तो हम उसके सवाल का बस जवाब देते हैं। फतवे किसी को पाबंद नहीं बनाते। मानना न मानना आपकी मर्जी।”