किसी भी व्यक्ति, देश, समाज को सबसे प्रिय कोई वस्तु होती है तो वो है आज़ादी। यूं तो हम 1947 में ही आज़ाद हो गए थे, परंतु क्या हम गुलामी के चिन्हों को पूरी तरह छोड़ चुके है?
एक तरफ विभिन्न राज्य और केंद्र सरकार इस मानसिकता के साथ स्थानों और शहरों के नाम बदल रही है कि आज़ाद भारत में ऐसी कोई भी चीज ना हो जो गुलामी और विदेशी आक्रांताओं द्वारा किए गए हमारे शोषण का प्रतीक हो तो दूसरी ओर एक स्थान जो वास्तविक रूप से गुलामी के प्रतीक है उसे कुछ जाति के योद्धा अपना शौर्य समझते है। रही सही कसर पूरी करता है हमारा कथित राष्ट्रवादी मीडिया और समाज का कथित आइना बॉलीवुड।
भीमा कोरेगांव की घटना पर फिल्म बनाकर अंग्रेजी शासन की विजय का वर्णन करना, और विदेशी आक्रांताओं का महिमा मंडन करना क्या भारत और भारतीयता से देशद्रोह नहीं है। भीमा कोरेगांव को लगभग 203 साल पहले 1 जनवरी 1818 को हिन्दू पेशवाओं के नेतृत्व वाले मराठा साम्राज्य और अंग्रेजी ईस्ट इण्डिया कम्पनी के बीच हुए युद्ध के लिए जाना जाता है। इस युद्ध में मराठाओं की सेना का नेतृत्व पेशवा बाजीराव द्वितीय और अंग्रेजी सेना का नेतृत्व कैप्टन फ्रांसिस ने किया था। भीमा कोरेगांव की लड़ाई अंग्रेजो और मराठाओं के बीच हुई कई लड़ाई में से एक थी, लेकिन आज के समय में बुद्धिजीवियों द्वारा एक ऐसी लड़ाई के रूप में दिखाया जाता है जहां दलितों ने ब्राह्मणों के खिलाफ लड़ाई लड़ी। जबकि तथ्य यह है कि युद्ध अंग्रेजो और पेशवाओं के मध्य था, जिसमें पेशवा कभी पराजित भी नहीं हुए थे। हालाकि यह सत्य है कि इस युद्ध में अंग्रेजी सेना के दलित और गैर दलित सैनिकों ने वीरता के साथ लड़ाई लड़ी और मराठो को काफी हताहत किया, लेकिन अंग्रेजो ने इस युद्ध में अपनी जान गंवा देने वाले वीरो का इस प्रकार आभार प्रकट किया कि उन्होंने अंग्रेजी सेना में महारो की भर्ती करना यह कह कर बन्द कर दिया कि वे निम्न जाति के अछूत थे। भारतीय समाज में जाति की तीव्र रेखा अंग्रेजो ने खींची।
स्टीफन कोहेन के अनुसार भारत पर विजय प्राप्त करने के बाद अंग्रेजो ने अछूतो को “बेकार” कहकर खारिज कर दिया और उन्होंने “उच्च जाति के सुंदर पुरुषों” की सेना में भर्ती की। इसके बाद महारो ने ब्रिटिश अधिकारियों को पत्र लिखकर अनुरोध किया की वे क्षत्रिय थे और उन्हें अंग्रेजी सेना में शामिल किया जाए।
अम्बेडकर की ही तरह आज के जिग्नेश मेवानी जैसे दलित अंग्रेजो का महिमा मंडन करते है और खुद की हिन्दुओं से अलग बताते है। जबकि वह यह भूल जाते है कि अम्बेडकर के पिता जो की एक महार सैनिक थे और सच्चे हिन्दू की भांति रामायण, महाभारत का पाठ करते थे।
अंबेडकरवादी लोग कहते है कि हिन्दू समाज ने दलितों को कभी अपने साथ हथियार रखने उनका उपयोग करने का अधिकार नहीं दिया जबकि महारो के सबसे बड़े वर्ग सोमवंशी महारो के अनुसार उनके पूर्वजों ने महाभारत के युद्ध में पांडवो की ओर से युद्ध किया। यदि दलितों को हथियार रखने और युद्ध करने की अनुमति नहीं थी तो यह परम्परा कैसे आई? शिवाजी महाराज के सहयोगी रहे। क्या महार समाज को अंग्रेजो का सहयोगी बताना, उनके सैनिकों की वीरता का अपमान नहीं होगा?
प्रसिद्ध इतिहासकार जदुनाथ सरकार ने अपनी पुस्तक “शिवाजी एंड हिज टाइम्स” के पृष्ठ 363 पर उल्लेख किया है कि शिवाजी की सेना में बड़ी संख्या में महार भी थे। इतना ही नहीं शिवाजी के पुत्र राजाराम ने तो शिवन्नक महार को उसकी बहादुरी के लिए पुरस्कृत करते हुए कलमाबी गांव भेंट किया था। इसी शीवन्नक महार के पोते, जिसका नाम भी सेवक ही था, ने 1975 में निजाम के खिलाफ हुई खरदा की लड़ाई में परशुराम भाऊ की प्राण रक्षा की थी।
केवही कोटवाले ने अपनी पुस्तक “पॉलिटिक्स ऑफ दलित”1974 के पृष्ठ 142_145 में उल्लेख किया है कि जब कुछ लोगो ने जाति के आधार पर सेवक महार की मराठा शिविर में उपस्तिथि पर आपत्ति जताई तो पेशवा के ब्राह्मण सलाहकार हिरोजी पाटनकर ने अभिमत दिया की युद्ध क्षेत्र में शोर्य प्रमुख होता है ना कि जाति।
वहीं लोंगर द्वारा लिखित Forefront for Ever : The history of the Mahar Regiment ने नग्नक महार के युद्ध कौशल का उल्लेख है जिसने मुसलमानों से वह वैराटगढ़ का किला जीत कर राजाराम को अर्पित किया, इससे प्रसन्न होकर राजाराम ने उन्हें सतारा का पाटिल नियुक्त किया।
किसी भी साधारण व्यक्ति में यह समझ होती है कि यदि कुछ महार विदेशी आक्रांताओं के साथ थे तो कुछ पेशवाओं के भी साथ थे। ब्रिटिश सेना के साथ मराठों के युद्ध में दोनों पक्षों के लोग हताहत हुए थे, यह भी सत्य है।
पेशवा की सेना में भी अन्य समुदाय के साथ साथ तथाकथित दलित समुदाय के भी लोग थे तो ऐसा क्यों नहीं कहा जाता की अंग्रेजों ने यह युद्ध पेशवा की सेना में शामिल दलितों के खिलाफ लड़ा था। यह कैसा दुर्भाग्य है कि खुद को दलित नेता कहने वाले लोगों ने और लोकतंत्र के चौथे स्तंभ में नहीं कोरेगांव की लड़ाई को ब्रिटिश बनाम भारतीयों की लड़ाई के स्थान पर पेशवा और म्हारो के बीच का युद्ध बना दिया। और 21वीं सदी की आजाद भारत में कोई सत्य बोलना भी नहीं चाहता ना तो बुद्धिजीवी वर्ग ना कोई राष्ट्रवादी नेता और ना ही कोई राजनीतिक दल।
क्या आपने कभी किसी को सेवक महार का महिमामंडन करते देखा या सुना है? नहीं सुना होगा क्योंकि उसके महिमामंडन से भारत में जातीय संघर्ष को हवा नहीं मिलेगी जैसा कि सत्ता लोलुप भ्रष्ट राजनेता चाहते हैं। आखिर कोई तो यह पूछे की महारो ने युद्ध सीखा कहां से? क्या अंग्रेजों ने उनके लिए कोई प्रशिक्षण संस्थान चलाया था? शिवाजी महाराज से लेकर पेशवा काल तक महार मराठा सेना के अभिन्न अंग रहे। उनके उस समय के पराक्रम को बुलाकर अंग्रेजों के सहायक की भूमिका को चर्चित करना, क्या उनका अपमान नहीं है, क्या यह हमारी मातृभूमि से देशद्रोह नहीं है?
यह भी एक तथ्य है की महारो और पेशवाओं के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध थे। 1770 में पेशवा माधव राय ने नीची जातियां या वर्गों से जबरन श्रम या यूं कहें बंधुआ मजदूरी को खत्म कर दिया, उनसे ली जाने वाली हर सेवा का भुगतान अब नकद में किया जाने लगा। आपको यह भी जाना चाहिए कि ब्रिटिश साम्राज्य के दासता को खत्म करने से लगभग 50 साल पहले ही पेशवा ने दासता को समाप्त कर दिया।
तब माधवराव का जन्म हुआ तो पेशवा बालाजी बाजीराव नहीं कोलिस, रामोसिस, और म्हारो जैसी आज के समय में अछूत समझी जाने वाली जातियों को 300 हेक्टेयर भूमि यानी लगभग 1200 बीघा जमीन प्रदान की थी।
पेशवाओं की शासनकाल में महारो की सामाजिक स्थिति को दर्शाती एक घटना यह भी है की पौड़खोर जिले के के कुछ ब्राह्मणों ने आपसी विवाद के चलते महार समाज की शादी में जाने से इनकार कर दिया तो पेशवाओ ने ब्राह्मणों के इस निर्णय पर बिल्कुल भी दया नहीं की और उन पर ₹10 का जुर्माना भी लगाया। वहीं ब्राह्मणों को महारो की शादी में शामिल होने के लिए बाध्य किया। उस प्राचीन काल में महार पूजा पाठ और देवी अनुष्ठानों में भी प्रमुखता से भाग लेते थे। जब पवार राजपूतों ने नारायण देव उत्सव मनाया तो म्हारो को प्रमुखता से आमंत्रित किया गया ताकि वे प्रथम प्रसाद का हिस्सा बन सके लेकिन तथाकथित जाति के योद्धाओं की प्रमुख कोशिश यही होती है कि वह कैसे दलित और गैर दलित के नाम पर समाज में जाति का अंतर फैलाकर भ्रम पैदा कर सकें।
इन आधारों पर आप इंडोलॉजिस्ट सूसान बायली से सहमत होंगे जिन्होंने अस्पृश्यता को ब्रिटिश उपनिवेशवाद का हिस्सा बताया लेकिन आज के समय में हर दोस्त का श्रेय केवल एक समुदाय को दे दिया जाता है और महर्षि मनु को खलनायक की भांति देखा जाता है।
अब स्पष्ट हो गया है कि लड़ाई महारो और ब्राह्मण पेशवा के मध्य नहीं बल्कि अंग्रेजों और मराठों के बीच थी जिसमें पेशवा कभी हारे भी नहीं थे। हम महार सैनिकों की वीरता का सम्मान करते हैं और उनके सनातन संस्कृति को महान मानने के इतिहास के साथ महाभारत परंपरा को याद दिलाते हैं। और जो लोग जाति के नाम पर भ्रम फैलाकर समाज में सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ना चाहते हैं वह लोग कभी सफल नहीं हो पाएंगे।
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