बाबा अमरनाथ का धाम कश्मीर जो खुले आसमान के नीचे हिमशिखरों की मनमोहक ऊंची-ऊंची पहाड़ियों के बीच बहती झीलों से सुसज्जजित है। वो कश्मीर जिसे ब्रह्म ऋषि कश्यप ने अपने तपो बल से पृथ्वी के स्वर्गः के रूप में स्थापित किया। ज्ञान की देवी सरस्वती की भूमि कश्मीर जिसे शंकराचार्य, चरक, भारत, आदि आदि महान पंडितों ने अपने तप अपने कर्मों अपने ज्ञान अपनी विद्या से कश्मीर को संस्कृति और विज्ञान का केंद्र बनाया, भारत को विश्व गुरु के रूप में स्थापित किया जिसके बाद समस्त विश्व से सर्वाधिक विवेकशील शोधकर्ता कश्मीर पहुंचे और भारतीय पंडितों के शोध व ज्ञान के अनुयायी बने।
परन्तु विश्व के आधुनिक राक्षसों को यह रास न आया और जब वे इसे अपने तर्क या ज्ञान से न जीत सके तो कायरों की तरह झुण्ड बनाकर कश्मीर को तहस नहस करने के लिए बार-बार आक्रमण किये। सहनशील कश्मीरी पंडितों ने अपनी विद्या व विवेक, तो वहीँ पहले क्षत्रिय व शूद्रों ने और बाद में सिखों ने अपने बल से आक्रांताओं को मुँह-तोड़ जवाब दिया। परन्तु धीरे-धीरे क्षडयंत्र करके कट्टरपन्तियों ने कश्मीर में अपनी तादाद बड़ाई जिसके बाद 13 वीं शताब्दी में एराकी के नेतृत्व में कश्मीरी पंडितों के रूप में कश्मीरियत और सनातन सांस्कृतिक धरोहर का पहला नरसंघार हुआ। ऐसे ही न जाने कितनी बार कश्मीरी पंडितों को तथा अन्य हिन्दू समुदाय को मौत के घाट उतार दिया गया जिनमें से अगर 90 के नरसंघार को भी जोड़ लिया जाए तो सात नरसंहारों को तो हमारी राजधानी में स्थित राष्ट्रप्रेम के लिए बहुचर्चित विश्वविद्यालय से पढ़े या प्रभावित अति बुद्धिशाली आधुनिक इतिहास के पंडित भी मान लेते हैं।
हाँ ! सब कुछ जानते बूझते हुए शुतुरमुर्ग की तरह न जानने का ढोंग करने वाले ये लोग, कश्मीरी पंडितों के इन नरसंहारों को गरीबी और लाचारी का चोला उढ़ाकर इसे वैद करार दे देते हैं। और ढक देते हैं हैवानियत की सभी सीमाओं को लांघ जाने वाली वो असलियत जिसने समस्त मानव जाती को शर्मसार कर दिया।
असलियत जनवरी 1990 की जब कश्मीर और कश्मीरियत को जन्म देने वाले कश्मीरी पंडितों को उन्ही के कश्मीर से भागने के लिए विवश कर दिया। ‘रालिब – ग़ालिब – चालिव’ के उस नारे से प्रेरित उन शैतानों ने कश्मीरी पंडितों के रूप में कश्मीर का खून कर दिया। भारत जैसे देश में जहाँ महिलाओं को देवी के अनेक रूपों में पूजा जाता है, उसी देश में उन चुनिंदा दिनों में माता सरस्वती की तरह पावन उन कश्मीरी महिलाओं की शुद्धता को उस धार्मिक कटटरपंथियों की असभ्य भीड़ ने तार- तार करने का दुस्साहस किया। उस वैमनुष्यताः से भरी भीड़ ने जब उन मृत पंडितों के पवित्र जनेऊओं से टीले बनाकर जलाया तो मानो वह भारतीय शोद, ज्ञान और संस्कृति को जलाने समान था। और उन मृत शरीरों को जब पेड़ों से बाँध नंग-नाच किया गया तो वो जश्न पंडितों से आज़ादी का नहीं अपितु पौराणिक सांस्कृतिक सभ्यता से आज़ादी का था।
20 वीं सदी के अंत में मानवता और सभ्यता पर इतना गहरा प्रहार हो और राजनैतिक गलकियारों को इसकी बनक तक न हो ऐसा सोचना भी बेवकूफी होगी। और यदि ऐसा था भी तो क्या भारतीय गणराज्य की वायुसेना के चार वरिष्ठ अफसर बीच बाजार गोलियों से भून दिए जाए इसकी जानकारी ग्रह मंत्रलय को नहीं होगी। जब लाखों कश्मीरी पंडितों को बेरहमी से मार, भरे बाजार पेड़ों – खम्बों से बाँध दिया जाए, तो क्या इसकी जानकारी प्रशासन को नहीं रही होगी। जब बीच सड़क दरिंदे महिलाओं की इज़्ज़त को तार तार कर रहे थे तो क्या उनकी चीखों से उन राजनैतिक प्रतिनिदियों के कानों में जूँ तक नहीं रेंगी। क्या वो पत्रकार जो सबकुछ देखकर भी अनदेखा कर गए उनकी आत्मा ने उन्हें धिक्कारा नहीं होगा।
अफ़सोस कि लाखों के हत्यारों को दिल्ली में बुला बुलाकर राजनेताओं की तरह उनका प्रचार करते लोग अपनेआप को सरकार से तमगाप्राप्त पत्रकार कहते हैं। अफ़सोस कि जिन दरिंदों को कानून के अनुसार सबसे कठोर सजा दी जानी चाहिए थी वो दिल्ली में सरकारी मेहमान बनकर मेहमाननवाज़ी का लुफ्त उठा रहे थे। धिक्कार है उस सरकारी तंत्र पर जो लोगों के द्वारा, लोगों के लिए चुना तो जाता है पर जब उन्हीं लोगों को उनकी जरूरत पड़ती है तो वो लोगों द्वारा चुनी सरकार उन्हें सुनने तक से इंकार कर देती है। वो करदाता जिसके रुपयों पर सरकारी तंत्र राजसी ठाठ भोगता है, उसी कर दाता को जब अपने ही घर से निकाल फेंक दिया जाता है तो वही करदाता अपने और अपने परिवार के हक़ के लिए सरकारी दफ्तरों की ठोकरें खाता फिरता है पर वहां उससे सम्मानपूर्वक बात तक नहीं की जाती। लैला मजनू की कहानियों से इतर कश्मीरी पंडितों की इसी दर्दनाक असलियत को बयां करती है विवेक अग्निहोत्री द्वारा रचित फिल्म “द कश्मीर फाइल्स”।
Shivam Pathak works as Editor at Falana Dikhana.