नई दिल्ली: भारत में बेरोज़गारी एक गंभीर और लगातार बढ़ती हुई समस्या है, जो न केवल गरीब और हाशिए पर पड़े वर्गों को प्रभावित कर रही है, बल्कि सामान्य और सवर्ण वर्गों में भी इसका प्रभाव स्पष्ट हो रहा है। हाल ही में जारी एक सरकारी रिपोर्ट ने यह स्पष्ट किया है कि सामान्य वर्ग में बेरोज़गारी की दर 3.8% तक पहुँच गई है, जो अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST), और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के मुकाबले अधिक है। इस स्थिति ने सवाल उठाए हैं कि क्या सरकार इस बढ़ती हुई बेरोज़गारी के मुद्दे को गंभीरता से ले रही है और इसके समाधान के लिए क्या उपाय कर रही है।
जाति-वार बेरोज़गारी की दरें
सरकार की हालिया वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, बेरोज़गारी की दर विभिन्न जातियों में इस प्रकार है: अनुसूचित जाति (SC): 3.3%; अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC): 3.1%; अनुसूचित जनजाति (ST): 1.9%; सवर्ण वर्ग (General Category): 3.8%। यह आंकड़े स्पष्ट करते हैं कि सवर्ण वर्ग में बेरोज़गारी की दर अन्य वर्गों की तुलना में अधिक है। हालांकि, इस पर समाज में व्यापक चर्चा नहीं हो रही है। ऐसा लगता है कि मीडिया और राजनीतिक दल इस मुद्दे को नजरअंदाज कर रहे हैं, जबकि यह हर वर्ग के लिए एक समान चिंता का विषय है।
धर्म-वार बेरोज़गारी के आंकड़े
धर्म के आधार पर भी बेरोज़गारी की स्थिति चिंताजनक है। रिपोर्ट के अनुसार, विभिन्न धर्मों में बेरोज़गारी की दर निम्नलिखित है: सिख: 5.8% (सबसे अधिक); ईसाई: 4.7%; मुस्लिम: 3.2%; हिंदू: 3.1% ।यह आंकड़े बताते हैं कि सिख समुदाय में बेरोज़गारी दर सबसे अधिक है, जबकि अन्य धर्मों में भी बेरोज़गारी की समस्या गंभीर बनी हुई है। 2011-12 के आंकड़ों के अनुसार, मुस्लिम समुदाय में बेरोज़गारी दर 3.3% थी, जो अब घटकर 3.2% हो गई है, जबकि हिंदू समुदाय में यह दर 3.1% पर स्थिर है।
महिलाओं में बेरोज़गारी की स्थिति
महिलाओं के संदर्भ में भी बेरोज़गारी के आंकड़े चिंताजनक हैं। सिख महिलाओं में बेरोज़गारी दर 7.9% है, जो सभी धार्मिक समुदायों में सबसे अधिक है। ईसाई महिलाओं में यह दर 5.4%, मुस्लिम महिलाओं में 3.6%, और हिंदू महिलाओं में 3.1% है। यह गलत धारणा है कि मुस्लिम महिलाओं में बेरोज़गारी दर सबसे अधिक होती है, जबकि सिख महिलाओं की स्थिति वास्तव में अधिक चिंताजनक है।
सरकारी नीतियों का प्रभाव
मोदी सरकार के कार्यकाल के दौरान, मुस्लिम समुदाय की बेरोज़गारी दर में मामूली गिरावट देखी गई है। 2011-12 में यह दर 3.3% थी, जो अब 3.2% हो गई है। लेकिन क्या यह गिरावट पर्याप्त है? क्या सरकार अन्य वर्गों के लिए समान प्रयास कर रही है? यह सवाल गंभीरता से उठता है।बेरोज़गारी की यह समस्या केवल एक आर्थिक मुद्दा नहीं है, बल्कि यह समाज के विभिन्न वर्गों के बीच असमानता और संघर्ष का संकेत भी है। राजनीतिक दल और मीडिया को चाहिए कि वे इस मुद्दे पर खुलकर चर्चा करें और समाज के हर वर्ग की आवाज़ को सुने। यह आवश्यक है कि सरकार इस समस्या को गंभीरता से ले और इसके समाधान के लिए ठोस कदम उठाए।